The Lord

भगवान और उसका अस्तित्व....




आस्तिक और नास्तिक -

   अधिकतर लोग भगवान के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, कुछ लोग अस्वीकार करते हैं। जो भगवान में विश्वास करते हैं, आस्तिक कहे जाते हैं और जो नहीं करते उन्हें नास्तिक कह दिया जाता है।
जो अधिकतर लोग भगवान में विश्वास करते हैं। उनका मानना है कि इस सृष्टी का सृजन भगवान ने किया है। जबकि नास्तिक लोग इनसे सर्वथा पृथक मत रखते हैं। उनका मानना है कि, भगवान की उत्पति स्वयं मनुष्य ने ही की है। यह बात मानो अथवा न मानो, लेकिन सत्यता इससे बहुत परे भी नहीं है। इस पर कोई भी आस्तिक प्रश्न उठा सकता है कि, ऐसा कैसे हो सकता है कि भगवान की उत्पति मनुष्य ने की हो, बल्कि भगवान ने तो स्वयं इन मानवों की, यहाँ तक कि संपूर्ण सृष्टी की रचना की है। वो लोग (आस्तिक), इसके लिए तर्क भी दे सकते हैं। जो कुछ इस प्रकार से हो सकते हैं-

  1. यदि सृष्टी की रचना भगवान ने नहीं की तो, इसका निर्माण कैसे हुआ?
  2. इस संसार का Regulation इतना सुव्यवस्थित कैसे है? इसे कौन Control करता है? 
  3. कौन दिन-रात को इतना सुव्यवस्थित करता है, कि 24 hour के अंदर एक दिन का चक्र पूरा हो जाता है? सौरमण्डल के सभी ग्रहों का अपनी कक्षा में ही परिक्रमण, या यह अद्भुत नहीं है ?
  4. 6 ऋतुएँ, एकदम सही समय पर एक साल के अंदर होना, समय पर गर्मी समय पर सर्दी - बरसात - बसंत का आना और जाना। इतनी व्यवस्था! ईश्वर के अलावा कौन है, जो ऐसा कर सकता है?
  5. फूल से फल , फल से बीज , बीज से पादप , पादप से पेड़ , और पेड़ से पुनः फूल, फल बीज के बनने में क्रम है । इस क्रम की नियमितता कौन बनाता है ?
  6. वायु (हवा ) अदृश्य है, बिजली अदृश्य है , फिर भी इनका अस्तित्व मान लिया जाता है, लेकिन ईश्वर के लिए ऐसा नहीं है ?
  7. वो कौनसा बल है, जो सभी आकाशीय पिण्डों को अपने स्थान पर बनाए रखता है?

      ऐसे और भी अनेक प्रश्न हैं, जिन्हें आस्तिक पूछ लेते हैं।

ये प्रश्न कोई भी उठा सकता है। इनके उत्तर सभी जन अपने अपने हिसाब से दे देते हैं।

जो आस्तिक हैं, उनका काम काफी आसान हो जाता है। उन्हें तो कुछ सोचने की आवश्यकता है ही नहीं! उनके सभी प्रश्नों का सार्वभौमिक उत्तर एक ही होता है। वे आसानी से कह सकते हैं, ये सब ईश्वर के कारण है। ईश्वर ही तो वह है, जो वो सभी घटनाएँ जो इस ब्रह्माण्ड में घटित हो रही हैं, का सृजन करता है।

है ना, कितना आसान; कुछ सोचना ही नहीं पड़ा और सभी प्रश्नों का उत्तर भी मिल गया।
लेकिन जो नास्तिक हैं, उनका क्या। उनके पास क्या उत्तर हैं! उन्हें तो सोचना पड़ेगा; तर्क करना पड़ेगा। काफी मुश्किल हो जाता है, ऐसे प्रश्नों का उत्तर देना।





इस प्रकार क्या हम ये नहीं देख सकते कि, ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लेने मात्र से हमारी कितनी ही (अनेक ) समस्याएँ हल हो जाती हैं अथवा ऐसा कि,
समस्याएँ हल नहीं होती बल्कि हम उनसे पल्ला झाड़ लेते हैं। हमें उनके बारे में सोचना ही नहीं पड़ेगा।

ये भी ठीक है, कई उलझनों से बचने का सार्थक तरिका तो है ही, फिर जो भी हो।

कहीं ये ऐसा ही तो नहीं है कि, मनुष्य ने ईश्वर को इसीलिए इजाद किया हो ताकि उसे ऐसे बेकार के झंझटों से छुटकारा मिल जाए।

हाँ, ये ऐसा भी हो सकता है।

लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात यह है, कि ईश्वर को किसी हमारे जैसे सामान्य जन ने नहीं इजाद कर दिया है। ये काम अवश्य ही किसी धूर्त व्यक्ति का रहा होगा। वह जिससे इसे कोई लाभ होने वाला हो! कौन हो सकता है वह इसके बारे में आगे चचा करेंगे। जिससे पहले हमें यह जान लेना चाहिए, की धर्म और ईश्वर की उत्पत्ति कैसे हुई।

यह ( भगवान का निर्माण ) अचानक से नहीं हो गया है। बल्कि यह एक क्रमिक परिवर्तनों के साथ हुआ है। ईश्वर का अस्तित्व में आना और धर्म का क्रमिक विकास या परिवर्तन दोनों घटनाऐं समानान्तर चली हैं।


धर्म और उसकी उत्पत्ति -

   यह प्रक्रिया कुछ इस तरह रही है।
प्राचीन समय में आदि-मानव जंगलों में या पर्वतों पर गुफाओं में रहता था। उस समय उसका वैज्ञानिक विकास बहुत अधिक नहीं हुआ था। तब घटने वाली प्राकृतिक घटनाएँ, जैसे : बरसात का होना, आँधी - तूफान - चक्रवात का आना, भूकंप का होना, भारी बरसात के कारण बाढ़ का आ जाना, आदि - आदि , ये सब उसकी कल्पना और मनो - वैज्ञानिक सोच से परे की बातें थी। इन सब घटनाओं का होना उसकी समझ से परे था। वह सोच ही नहीं पाता था, कि ये सब घटनाएँ कैसे घटित हो रही हैं। उसको इन घटनाओं के पीछे ऐसा कोई कारण मालूम नहीं हुआ, जिससे की वह मान सके की यह उनके कारण हैं । इस प्रकार उसने इन घटनाओं को ऐसी अलौकिक शक्ति के कारण माना जिसे उसने कभी देखा ही नहीं, न ही जिसके बारे में कभी सुना और न ही उसे महसूस किया। ऐसा इसलिए था क्योंकि, इन घटनाओं का कारण अज्ञात था। आपको आश्चर्य होगा यह जानकर कि जिस अलौकिक शक्ति की कल्पना की गई थी, वह कोई दैत्याकार शैतान स्वरूप थी। क्योंकि वह लोगों को प्रताड़ित करती हुई प्रतीत हो रही थी। लेकिन धीरे - धीरे लोगों की मानसिकता परिवर्तित हो गई । उनको ऐसा लगने लगा जैसे यह शक्ति उन्हें लाभांवित भी करती है और गलत काम करने पर दण्डित करती है। इस प्रकार इस शक्ति का रूप दैत्य से ईश्वर ने ले लिया। लोग ऐसा मानने लगे, जैसेः यह ही है, जो बरसात करवाता है जो खेत - खलिहानों के काम आता है । और जब इन्सान प्रकृति के साथ कुछ भी अनियमित करता है तो, यह भारी बरसात से बाढ़ लाकर अथवा भूकंप से, आंधी तूफान से उन्हें उनके कृत्य के लिए दण्डित करता है।
यह ईश्वर की परिकल्पना संसार के भिन्न - भिन्न हिस्सों में विभिन्न समय पर दी गई । यह ही धर्म / मजहब / Religion का मुख्य आधार है।




Basically देखा जाए तो धर्म उसे कहा गया है, जो प्राचीन काल में लोगों को प्राकृतिक आपदाओं के निवारण का उपाय बताता था। धर्म हर समय एक जैसा नहीं रहा है। यह भी समय के साथ क्रमिक परिवर्तित होता रहा है ।धर्म में परिवर्तन मानव विकास के समानार्थी हुआ है। धर्म मानव के लिए विभिन्न समय पर विभिन्न रूप वाला रहा है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, सर्वप्रथम प्राकृतिक आपदाओं को किसी शैतान का प्रकोप माना गया, और उसका उपाय धर्म ने जो बताया वह कुछ जादू - टोने जैसा था। तद्उपरांत जब माना गया कि, यह सब ईश्वर के कारण है तो उसे प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार के कर्म - काण्ड बताए गए । जैसे : बलियों वाले यज्ञ, हवन, अनेक प्रकार के रीति - रिवाज आदि - आदि। मनुष्य के विश्वास , यज्ञ , हवन , मूर्ति - पूजा आदि ने मिलकर धर्म का निमार्ण किया।
समय के साथ धर्म ने अलग ही रूप धारण कर लिया , जिसके अनुसार माना जाने लगा कि समस्त प्राणि - जगत और संसार की रचना ईश्वर ने की है।

इस प्रकार ईश्वर की अवधारणा ने ( या ये कहें कि ईश्वर ने ) जन्म लिया। धर्म में ईश्वर को सर्वोच्च स्थान ( परमात्मा का ) दिया गया । उसे ही सभी सुख और दुःखों का दाता माना गया।

अब बात ये आती है कि, क्योंकि ईश्वर ने सभी मानवों और अन्य जीवों की रचना की है। तब तो वह सभी को ही प्रश्न रखना चाहेगा। जबकि हम देख सकते हैं, कि इस संसार में चारों - और अन्याय और दुःख ही दुःख है। जैसे कि दुःख का साम्राज्य ही फैला हो। फिर, ऐसा क्यों है ?



आत्मा और परमात्मा -


संसार में दु:खों का होना सास्वत है। जब मनुष्यों को अपने दुःखों के बारे में पता चला होगा, तो उनमें से कुछ द्वारा उन्हें दूर करने के प्रयास किए गए होंगे। इस प्रकार सभी ने अपने अनुसार अलग - अलग समय में, और संसार के अलग - अलग भागों में विभिन्न धर्मों की रचना की। जब उन लोगों को दुःखों का कारण न मालूम हुआ, तो उन्होंनें उसे पुर्व-जन्मों का फल बताया। जो पुर्वजन्म में जैसे कर्म करेगा, उसे अगले जन्म में उसी के अनुसार योनि (science की भाषा में, species) प्राप्त होगी। जो अच्छे कर्म करेगा उसे मनुष्य के रूप में जन्म मिलेगा और जो बुरे कर्म करेगा उसे किसी जानवर के रूप में जन्म मिलेगा। यह सब उन लोगों की अवधारणाएँ (Hypothesis) थी, जो आज तक लोग, मूर्खों की तरह मानते आ रहे हैं। वो लोग यहाँ तक ही नहीं रुके, उन लोगों ने बताया कि यह पूर्व जन्मों के कारण ही है, कि इस जन्म में हमें सुख अथवा दुःख मिल रहे हैं।

यही कर्म की अवधारणा है।



इस प्रकार धर्म ने बताया कि जन्तु विभिन्न योनियों में जन्म कैसे लेते हैं और उन्हें दुःखों का भागी क्यों होना पड़ता है।
हमें पूर्व - जन्मों के फल अगले जन्मों तक कैसे मिलते हैं? इसी के उत्तर में धर्म ने आत्मा को प्रकट किया है। पुर्व- जन्म और पुनर्जन्म की अवधारणाओं ने ही आत्मा को जन्म दिया है। आत्मा के बारे में कहा जाता है, कि वह अजर - अमर हैं और शरीर की मृत्यु के साथ ही वह उसे त्याग कर नये शरीर में प्रविष्ट होती है। इस प्रकार वह एक शरीर से दूसरे शरीर में संसरित होती है। ऐसा भी कहा जाता है कि, वह परमात्मा से भेजी गई है और जब तक वह वापस उसी परमात्मा से जाकर न मिल जाए, एक शरीर से दूसरे शरीर में ऐसे ही संसरित होती रहेगी। आत्मा का परमात्मा से मिलन मोक्ष कहलाता है। जिसे धर्म ने जीवन का अंतिम लक्ष्य बताया है।

हिन्दु धर्म की विसंगति -

सभी को पीछे छोड़ते हुए, हिन्दू धर्म ने अपने कदम इसी क्षेत्र में और आगे बढ़ा लिए और आत्मा को आधार बना वर्ण व्यवस्था की स्थापना की। चार वर्ण और हजारों जातियों का निर्माण इसी आधार पर किया गया।
हिन्दू धर्म में चार वर्णों का उल्लेख इस प्रकार है।

  1. ब्राह्मण ( शिक्षा और शिक्षण का एकाधिकार )
  2. क्षैत्रिय (शासन और प्रजा रक्षण का एकाधिकार)
  3. वैश्य ( व्यापार का एकाधिकार)
  4. शूद्र (उपर्युक्त तीनों की सेवा करना) 


इस प्रकार कुछ विशेष लोगों को विशेषाधिकार दिए गए। जो जिस वर्ण में जन्म लेगा उसे उसी के अनुसार कार्य करने होंगे। शूद्रों को शिक्षा, शासन व्यापार आदि अनेक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। तर्क था, यह इनके पूर्व- जन्मों का फल है, जो इन्हें इस वर्ण में जन्म मिला है। उनका कहना था, कि जो पूर्व जन्म में जैसे कर्म करेगा उसे उसी के अनुसार उसी प्रकार के वर्ण में जन्म मिलेगा। इस प्रकार लोगों को मूर्ख बना उनसे प्रति-क्रांति की क्षमता ही छीन ली गई। लोगों ने कभी अपने अधिकार मांगने की / छीनने की जुर्रत ही नहीं कि, क्योंकि उनके दिमाग में यह fit बैठा दिया गया था कि यह पूर्व जन्मों के कारण है।
इस वर्ण व्यवस्था ने देश (भारत ) का बेड़ा गर्क करके रख दिया है। देश निरंतर अवनति के पथ पर अग्रसर है।
मेरा आज का यह Topic था तो नहीं, लेकिन आ ही गई बात पर बात!




अभी तक हमने देखा की धर्म और ईश्वर या हैं, और इनकी उत्पत्ति कैसे हुई। जैसा कि आस्तिक मानते हैं।

अब हम देखते हैं, कि ऊपर बताई गई बातों में कितनी सच्चाई है, उनका तथ्यात्मक पहलू क्या है।






ईश्वर की वास्तविकता -


संसार का निर्माण कैसे हुआ यह एक सामान्य सा प्रश्न है, और इसका सामान्य सा ही उत्तर है कि इसका निर्माण ईश्वर द्वारा हुआ है। यह बताने के लिए कि सृष्टी का निर्माण ईश्वर ने किया है अथवा अन्य तरिके से हुआ है, यदि हमें यह पता चल जाए कि इसका निर्माण हुआ भी है या नहीं तो हमारा काम काफि हद तक हल हो जाएगा।

लेकिन क्या कोई इसका प्रमाण दे सकता है, कि इस सृष्टी का निर्माण ईश्वर ने ही किया है। क्या कोई बताएगा कि, संसार का निर्माण हुआ है अथवा विकास । यदि प्रकृति का निर्माण हुआ है, तब तो इसका अर्थ हुआ कि यह आज भी वैसी ही है जैसी निर्माण के समय थी, और भविष्य में भी ऐसी ही रहेगी। इस प्रकार तो यह अपरिवर्तनशील होगी क्योंकि इसका तो निर्माण हुआ है। लेकिन यह कैसे संभव है कि, यह सृष्टी अपरिवर्तनशील है, क्योंकि इसकी लगभग सभी चीजें नश्वर हैं, इनका निर्माण होता है और विनाश होता है। यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं है।...... (It will be continued, sorry for inconvenience)




.....एक तरह से देखें तो,

संसार में किसी भी वस्तु के अस्तित्व के लिए,
कि वो है, हम दो प्रकार से प्रमाण दे सकते हैं।

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष...

प्रत्यक्ष इस प्रकार कि, जैसे बरसात की बुंदों को देखकर हम कह सकते हैं, कि बरसात हो रही है।

और दूसरा अप्रत्यक्ष इस प्रकार कि, हमने नहीं देखा कि बरसात हुई है, लेकिन उसके बाद बने इंद्रधनुष को देखकर हम कह सकते हैं, कि अवश्य ही बरसात हुई है।

इस प्रकार बरसात ने अपने को प्रकट किया है, या ये कहें उसने अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया है। इस प्रकार,
किसी भी वस्तु के अस्तित्व को हम स्वीकार कर सकते हैं,



दुसरा,

यदि उसे देखा जा सकता है, सुना जा सकता है, अथवा अन्य प्रकार से किन्ही भी इंद्रियो से महसूस किया जा सकता है।

अथवा उपर्युक्त दो तरिकों से प्रमाणित कर सकते हों। तब एक ज्ञानी मनुष्य उनका अस्तित्व मान  सकता है!!!

लेकिन,
तथाकथित ईश्वर को किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं किया जा सकता।



कोई भी वस्तु अपने होने का प्रमाण देने के लिए अवश्य ही किसी ऐसे रूप में प्रकट होती है, जिसे आंकलित/ प्रमाणित किया जा सके।

जैसे हम विद्युत को नहीं देख सकते, परन्तु वह अपने होने का प्रमाण अनेक रूप में देती है, जैसे एक बल्ब को प्रकाशित कर!!

लेकिन भगवान अपने को किसी भी measurable चीज से प्रदर्शित नहीं करता।

इससे हम आसानी से कह सकते हैं, कि वो नहीं है।
यदि वो होगा, तब तो अवश्य ही स्वयं को प्रदर्शित करेगा।


इस संसार में सब कुछ ही लौकिक है। यहाँ जो भी है, वह या तो मानव जनित है अथवा प्राकृतिक है, अलौकिक कुछ भी नहीं। यदि इस संसार में कोई भी घटना घटित होती है, तो उसका कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है, यहाँ अकारण कुछ भी नहीं है। कुछ घटनाएँ और उनके कारण इतने समीप होते हैं कि हम आसानी से बता सकते हैं कि अमुक घटना क्यों घटित हुई। लेकिन कुछ घटनाएँ और उनके कारण के बीच का समयांतराल अत्यधिक हो जाता है, हमें समझ ही नहीं आता कि ये सामान्य सी घटना क्यों घटित हुई है। लेकिन मानव अपने तर्क और विज्ञान के आधार पर कभी न कभी तो पता लगा ही लेगा कि वह घटना क्यों घटित हुई। मानव विज्ञान निरंतर प्रगतिशील है, ऐसा नहीं है कि इसने सभी घटनाओं का कारण पता कर ही लिया है, हम ऐसी आशा कर सकते हैं, कि वह ऐसा कर ही लेगा।



- सम्राट डी एस जीसम्राट डी एस जी



Note: This is not the full post. Full post will be updated soon. 
Deeply regrets for inconvenience. 

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